
साभार श्री राजू मिश्रा: संस्मरण-
लखनऊ: शुक्रवार, १५ जनवरी २०१०
इधर बीच महंगाई ने तोड़ सा दिया था शीरीन को। फंड वगैरह तो पहले ही कुत्तों पर कुर्बान हो चुका था। कभी चूल्हा जला तो ठीक वरना होटल से काम चल जाता। पहले कुत्ते बाद में खुद खाया,ऐसा था शीरीन का दस्तूर। होटलवाला भी कुछ रहम दिल था। शीरीन उसकी तारीफ के पुल बांधती रहतीं। कहतीं-बड़ा नेक इन्सान है। बहुत दुआएं देती उसको। कुत्ते भी शीरीन पर जान छिड़कते थे। शीरीन बीमार तो कुत्ते रोते, शीरीन खुश तो कुत्ते दहाड़ते। कुत्ते आपकी खुशी कैसे भांप लेते हैं, शीरीन बताने लगतीं- अजी इनको तो बस बढि़या खाना चाहिए। अच्छा खाना मिल गया तो सारे के सारे जनाब बहुत खुश हो जाते हैं। कुत्तों के नाम भी शीरीन ने अलबेले रख छोड़े थे। दड़बेनुमा घर में किसी का नाम तेन्दुलकर तो कोई वीरू। शाहरुख से लेकर आमिर तक। कुतियों के नाम भी ऐसे ही कुछ- जैसे रानी मुखर्जी, शिल्पा बगैरह। सब के सब शीरीन की एक पुकार पर भागे चले आते।
इस्लामिया की ओर से गुजरते वक्त शीरीन से यदाकदा मुलाकात हो जाती थी लेकिन फोन पर उनसे सम्पर्क बना रहता। एक रोज सूखी रोटी खाती शीरीन को देख दंग रह गया। शीरीन चीथड़ों में लिपटी थीं। उनकी यह हालत देखी न गई मुझसे। खख्खाशाह तो था नहीं लिहाजा बातो ही बातों में अपनी मित्र रोमा हेमवानी जी से इस प्रसंग की चर्चा कर बैठा। यह उनकी सदाशय वृत्ति ही थी कि बिना सवाल किये एक निश्चित राशि प्रतिमाह भिजवाना उन्होंने शुरू कर दिया। शीरीन ने फोन करके कुछ झेपते हुए बातचीत शुरू की- यह क्यों करवा दिया आपने, खैर गाड की ओर मैडम को थैंक्यू बोलियेगा। अबकी जाड़ा बहुत ही किटकिटाऊ पड़ा। शीरीन का फोन आया-क्या एक कम्बल दिलवा देंगे किसी से। 'नहीं, मैं खुद लेकर दे जाऊंगा'-मैंने कहा लेकिन यह बात महज बतफरोशी होकर रह जायेगी, यह अनुमान न था। कम्बल ले आया था लेकिन शीरीन का फोन आता रहा और मैं रोज वायदा करके भी काम में फंसता रहा। आज अल सुबह शीरीन की भांजी सुखबीर का फोन आया- आन्टी नहीं रहीं, ठंडक लग गई थी। फोन रखते ही मानो सन्निपात सा हो गया, काटो तो खून नहीं-बस एक सवाल-'अब वह कम्बल किसे दूंगा'।
निशातगंज कब्रिस्तान में 79 बरस की न जाने कितने कुत्तों की मां शीरीन दफना दी गई हैं। लखनऊ सूबे की राजधानी है। तमाम पुरस्कार, तमगे यहां घोषित होते और बंटते हैं लेकिन शीरीन सरीखे लोगों का नाम इन पुरस्कारों की सूची में नहीं होता। शीरीन के सारे बच्चे अनाथ हो गये हैं। खुद को भी अपने ही हांथों ठगा महसूस कर रहा हूं मैं। अब किसी रोज कब्रिस्तान में सो रही शीरीन को कम्बल ओढ़ाकर अपनी झेप मिटाने का प्रयास करूंगा लेकिन शीरीन के हांथ में कम्बल न दे पाने का मलाल ताजिन्दगी सालता रहेगा। परमात्मा शीरीन को अपने चरणों में जगह देगा। हो सके तो माफ करना आन्टी। -
लेखक दैनिक जागरण में मुख्य उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं

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