Friday, June 18, 2010

सामाजिक सरोकार: आंटी, हो सके तो माफ़ करियेगा:


साभार श्री राजू मिश्रा: संस्मरण-
लखनऊ: शुक्रवार, १५ जनवरी २०१०

रह-रहकर गूंजता कुत्‍तों का रूदन चर्च परिसर में रुकने से रोकता है। ये कुत्‍ते अपनी मां को खोकर अनाथ हो चुके हैं। उस मां को जिसने इन्‍हें जना तो नहीं था अलबत्‍ता पाला-पोसा अपनी औलाद की मानिन्‍द। जाड़ा पड़ा तो शीरीन ने अपने तन की फिक्र नहीं की, कुत्‍तों को बेहतरीन स्‍वेटर पहनाये। भोजन भी एक से बढ़कर एक। कभी गोश्‍त पका तो कभी दूध और ब्रेड से काम चला लिया। कड़ाके की ठंडक ने जब शीरीन महावीर को लीला तो संबंधी इतना नहीं रोये, जितना कि यह कुत्‍ते रोये। कुत्‍ते रोये ही नहीं बल्कि अभी भी चुप लगाने का नाम नहीं ले रहे। लखनऊ के इस्‍लामिया कालेज के बगल रेड चर्च परिसर में रहने वाली शीरीन महावीर को होश संभलते ही सड़क के आवारा कुत्‍तों से ऐसा लगाव हुआ कि पूरी जिन्‍दगानी होम कर डाली उन्‍होंने कुत्‍तों पर। शीरीन ने शादी नहीं की। क्‍यों नहीं की, इस सवाल पर शीरीन कहने लगती- क्‍या बताऊं साहब। अपने लिये तो सब जीते हैं। मैं तो कुछ भी नहीं करती इनके लिए। सब गाड ही करता-कराता है। मै तो सिर्फ ऊपर वाले की वाचमैन हूं। शीरीन को अपनापे में कुछ लोगों ने खिताब दे डाला-'कुत्‍ते वाली आन्‍टी' और आन्‍टी भी ऐसी कि कभी किसी की बात का बुरा नहीं माना। एक महाविद्यालय में अंग्रेजी की लेक्‍चरर रही शीरीन का बहन की लड़की सुखबीर को छोड़कर इस दुनिया में कोई सगा न था। नौकरी के दौरान शीरीन ने अपनी पूरी तनख्‍वाह कुत्‍तों पर उड़ा डाली और रिटायर हुई तो पेंशन भी कुत्‍तों पर न्‍यौछावर कर दी। अपने पहनने -खाने की कभी कोई परवाह नहीं की। कुत्‍तों के लिए जो बना उसी में से कुछ अपने लिये भी निकाल लिया। कोई कुत्‍ता बीमार होता तो शीरीन की पेशानी पर बल पड़ जाते। डाक्‍टरों के यहां दौड़ती-भागती और दवाइयों का इंतजाम करती। खुददारी इतनी कि कभी किसी के सामने हांथ पसारना गंवारा नहीं किया। कोई दशक भर पहले मेरा परिचय हुआ था शीरीन से। हजरतगंज में शान के साथ टहलती शीरीन और उनके पीछे अलमस्‍त आवारा कुत्‍तों की एक लम्‍बी फौज। हर शख्‍स कभी शीरीन को घूरता तो कभी उनके अमले को और शीरीन थी कि बस अपनी ही धुन में चलती चली जा रहीं थी। कुत्‍तों के प्रति हमदर्दी शीरीन में कूट-कूट कर भरी थी। अपनी इस हमदर्दी के मूल में वह पिता का स्‍मरण कर आंखों में आंसू भर लेती। कहती - वह इंसान से कहीं ज्‍यादा जानवर में प्रभु को पाते थे, यह राज उन्‍होंने मुझसे जब से शेयर किया था तब से कुत्‍ते ही मेरे सर्वस्‍व हैं।
इधर बीच महंगाई ने तोड़ सा दिया था शीरीन को। फंड वगैरह तो पहले ही कुत्‍तों पर कुर्बान हो चुका था। कभी चूल्‍हा जला तो ठीक वरना होटल से काम चल जाता। पहले कुत्‍ते बाद में खुद खाया,ऐसा था शीरीन का दस्‍तूर। होटलवाला भी कुछ रहम दिल था। शीरीन उसकी तारीफ के पुल बांधती रहतीं। कहतीं-बड़ा नेक इन्‍सान है। बहुत दुआएं देती उसको। कुत्‍ते भी शीरीन पर जान छिड़कते थे। शीरीन बीमार तो कुत्‍ते रोते, शीरीन खुश तो कुत्‍ते दहाड़ते। कुत्‍ते आपकी खुशी कैसे भांप लेते हैं, शीरीन बताने लगतीं- अजी इनको तो बस बढि़या खाना चाहिए। अच्‍छा खाना मिल गया तो सारे के सारे जनाब बहुत खुश हो जाते हैं। कुत्‍तों के नाम भी शीरीन ने अलबेले रख छोड़े थे। दड़बेनुमा घर में किसी का नाम तेन्‍दुलकर तो कोई वीरू। शाहरुख से लेकर आमिर तक। कुतियों के नाम भी ऐसे ही कुछ- जैसे रानी मुखर्जी, शिल्‍पा बगैरह। सब के सब शीरीन की एक पुकार पर भागे चले आते।

इस्‍लामिया की ओर से गुजरते वक्‍त शीरीन से यदाकदा मुलाकात हो जाती थी लेकिन फोन पर उनसे सम्‍पर्क बना रहता। एक रोज सूखी रोटी खाती शीरीन को देख दंग रह गया। शीरीन चीथड़ों में लिपटी थीं। उनकी यह हालत देखी न गई मुझसे। खख्‍खाशाह तो था नहीं लिहाजा बातो ही बातों में अपनी मित्र रोमा हेमवानी जी से इस प्रसंग की चर्चा कर बैठा। यह उनकी सदाशय वृत्ति ही थी कि बिना सवाल किये एक निश्चित राशि प्रतिमाह भिजवाना उन्‍होंने शुरू कर दिया। शीरीन ने फोन करके कुछ झेपते हुए बातचीत शुरू की- यह क्‍यों करवा दिया आपने, खैर गाड की ओर मैडम को थैंक्‍यू बोलियेगा। अबकी जाड़ा बहुत ही किटकिटाऊ पड़ा। शीरीन का फोन आया-क्‍या एक कम्‍बल दिलवा देंगे किसी से। 'नहीं, मैं खुद लेकर दे जाऊंगा'-मैंने कहा लेकिन यह बात महज बतफरोशी होकर रह जायेगी, यह अनुमान न था। कम्‍बल ले आया था लेकिन शीरीन का फोन आता रहा और मैं रोज वायदा करके भी काम में फंसता रहा। आज अल सुबह शीरीन की भांजी सुखबीर का फोन आया- आन्‍टी नहीं रहीं, ठंडक लग गई थी। फोन रखते ही मानो सन्निपात सा हो गया, काटो तो खून नहीं-बस एक सवाल-'अब वह कम्‍बल किसे दूंगा'।
निशातगंज कब्रिस्‍तान में 79 बरस की न जाने कितने कुत्‍तों की मां शीरीन दफना दी गई हैं। लखनऊ सूबे की राजधानी है। तमाम पुरस्‍कार, तमगे यहां घोषित होते और बंटते हैं लेकिन शीरीन सरीखे लोगों का नाम इन पुरस्‍कारों की सूची में नहीं होता। शीरीन के सारे बच्‍चे अनाथ हो गये हैं। खुद को भी अपने ही हांथों ठगा महसूस कर रहा हूं मैं। अब किसी रोज कब्रिस्‍तान में सो रही शीरीन को कम्‍बल ओढ़ाकर अपनी झेप मिटाने का प्रयास करूंगा लेकिन शीरीन के हांथ में कम्‍बल न दे पाने का मलाल ताजिन्‍दगी सालता रहेगा। परमात्‍मा शीरीन को अपने चरणों में जगह देगा। हो सके तो माफ करना आन्‍टी। -
लेखक दैनिक जागरण में मुख्य उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं

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