
खालिद हसन -
कुशीनगर:इसे आस्था का जुनून कहें या फ़िर अंधा विश्वास ,जहां हर हाल में सदियों से चली आ रही अजीबो-ग़रीब परंपरा को निभाने का चलन है। परंपरा की बेड़ियों में जकड़े लोगों की ये दिलचस्प कहानी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर ज़िले की है, जहां का मुंडेरा गांव आज के दिन पूरी तरह से ख़ाली हो जाता है, दिन निकलने से पहले इस गांव के सब लोग गांव की सीमा से बाहर चले जाते हैं और दिन ढ़लने के बाद ही गांव में वापिस आते हैं। इस दौरान घरों में ताले भी नहीं लगाये जाते। हर तीसरे साल जेठ महीने के शुक्ल पक्ष के शुक्रवार या सोमवार को इस अजीब परंपरा को निभाया जाता है। दिन निकलते ही गांव की बाहरी सीमा पर ग्रामीणों का जमावड़ा लग जाता है और गांव में पूरी तरह सन्नाटा छा जाता है। काली मंदिर मे पूजा और सूर्यास्त के बाद गांव की परिक्रमा कर पताका फहरायी जाती है और इसके बाद ही लोगों की गांव में वापसी होती है। इस पूरे प्रायोजन को 'पराह' कहा जाता है।
गांव के बुज़ुर्गों के मुताबिक सदियों से चली आ रही इस परंपरा के निभाने से पूरा गांव गंभीर बीमारी और दैवीय आपदा से बचा रहता है। दर असल कई सौ साल पहले इस गांव में थारू जन जाति की बस्ती थी, जिन्हें सपने में मां काली ने गांव के बाहर पराह करने के आदेश दिये थे और ये भी कहा था कि ऐसा करने से पूरा गांव गंभीर बीमारी और दैवीय आपदा से बच जायेगा। थारू जन जाति के लोगों की इस परंपरा को मुंडेरा गांव के लोग आज भी ज़िंदा रखे हुए हैं। यही नहीं गांव मे कोई नव विवाहिता हो या प्रसूता स्त्री सभी को इस परंपरा का पालन करना पड़्ता है। और तो और गांव के बाहर काम करने वाले इस गांव के लोग छुट्टी लेकर इस परंपरा को निभाने आते हैं। इस गांव के लोगों की ये भी मान्यता है कि पराह के दिन यदि कोई गांव मे रुका और उसने पानी भी पिया तो वो अंधा हो जाता है इस डर से भी गांव में कोई भी नहीं रुकता। पराह के दिन घरों में ताले नहीं लगते और चोरी भी नहीं होती। इस मौके पर चंदे के पैसे से खरीदी गई एक भेड़ के गले मे कुछ खाद्य सामग्री बांध उसे काली मंदिर ले जाया जाता है जहां उसके गले से सामग्री खोल कर प्रसाद स्वरूप बांट दिया जाता है। एक दर्जन ब्राहमणॊं को इस मौके पर भोजन कराया जाता है। इस वैज्ञानिक युग में गांव वालों की नज़र मे पराह एक धार्मिक आयोजन है और इन लोगों का इस परंपरा में पूरा विश्वास है।
गांव के बुज़ुर्गों के मुताबिक सदियों से चली आ रही इस परंपरा के निभाने से पूरा गांव गंभीर बीमारी और दैवीय आपदा से बचा रहता है। दर असल कई सौ साल पहले इस गांव में थारू जन जाति की बस्ती थी, जिन्हें सपने में मां काली ने गांव के बाहर पराह करने के आदेश दिये थे और ये भी कहा था कि ऐसा करने से पूरा गांव गंभीर बीमारी और दैवीय आपदा से बच जायेगा। थारू जन जाति के लोगों की इस परंपरा को मुंडेरा गांव के लोग आज भी ज़िंदा रखे हुए हैं। यही नहीं गांव मे कोई नव विवाहिता हो या प्रसूता स्त्री सभी को इस परंपरा का पालन करना पड़्ता है। और तो और गांव के बाहर काम करने वाले इस गांव के लोग छुट्टी लेकर इस परंपरा को निभाने आते हैं। इस गांव के लोगों की ये भी मान्यता है कि पराह के दिन यदि कोई गांव मे रुका और उसने पानी भी पिया तो वो अंधा हो जाता है इस डर से भी गांव में कोई भी नहीं रुकता। पराह के दिन घरों में ताले नहीं लगते और चोरी भी नहीं होती। इस मौके पर चंदे के पैसे से खरीदी गई एक भेड़ के गले मे कुछ खाद्य सामग्री बांध उसे काली मंदिर ले जाया जाता है जहां उसके गले से सामग्री खोल कर प्रसाद स्वरूप बांट दिया जाता है। एक दर्जन ब्राहमणॊं को इस मौके पर भोजन कराया जाता है। इस वैज्ञानिक युग में गांव वालों की नज़र मे पराह एक धार्मिक आयोजन है और इन लोगों का इस परंपरा में पूरा विश्वास है।

It's not a matter of surprise.There are so many stories related to superstitions in almost every part of India.
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